भगवान श्री सत्यनारायण कथा

श्री_सत्यनारायण_कथा

श्री सत्यनारायण कथा का महत्व :-

भगवान श्री सत्यनारायण कथा व व्रत, पूजन, कथा अनुष्ठान इस कलिकाल में सर्वोत्तम फ़लदायी बताया गया है। इसके प्रभाव से मनुष्य के जाने अनजाने में किये गये सभी पाप नष्ट होते हैं।कथा

साथ ही जो भी मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करता है उसे धन-धान्य की प्राप्ति होती है, निर्धन धनी हो जाता है,

सन्तान हीन मनुष्य को सन्तान सुख मिलता है और बन्दी बन्धन से छूटकर भयमुक्त जीवन व्यतीत करता है।

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पूजा सामग्री

1. केले का तना,13. चावल,                                                 
2. आम के पत्ते,14. तुलसी के पत्ते,                                    
3. कलश,15. मौसम के फल,                      
4. धूप,16. पंचामृत यानि दूध,                  
5. रोली,17. घी,                                        
6. कपूर,18. शहद,                                  
7. दीपक,19. शक्कर और दही,                  
8. श्रीफल,20. नैवेद्य, कलावा,                        
9. पुष्पहार,21. जनेऊ,                                 
10. गुलाब के फूल,22. अंगवस्त्र,                                
11. पंचरत्न   23.वस्त्र और चौकी। 
12. पंचपल्लव, 

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श्री सत्यनारायण कथा - प्रथम: अध्याय

श्री_सत्यनारायण_कथा_प्रथम_ अध्याय

एक समय की बात है नैमिषारण्य तीर्थ में शौनिकादि, अठ्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा, हे प्रभु! इस कलियुग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिल सकती है?

तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ! कोई ऎसा तप बताइए जिससे थोड़े समय में ही पुण्य मिलें और मनवांछित फल भी मिल जाए। इस प्रकार की कथा सुनने की हम इच्छा रखते हैं

इसलिए मैं एक ऎसे श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों को बताऊँगा जिसे नारदजी ने लक्ष्मीनारायणजी से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारदजी से कहा था। आप सब इसे ध्यान से सुनिए –

एक समय की बात है, योगीराज नारदजी मन में दूसरों के हित की इच्छा लिए अनेकों लोको में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे।

यहाँ उन्होंने अनेक योनियों में जन्मे प्राय: सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुखों से पीड़ित देखा। उनका दुख देख कर नारद जी सोचने लगे कि कैसा यत्न किया जाए जिसके करने से निश्चित रुप से मानव के दु:खों का अन्त हो जाए।

इसी विचार पर मनन करते हुए वह विष्णुलोक में गए। वहाँ वह देवों के ईश नारायण की स्तुति करने लगे जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, गले में वरमाला पहने हुए थे।

स्तुति करते हुए नारदजी बोले: हे भगवान! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती हैं। आपका आदि, मध्य तथा अन्त नहीं है।

निर्गुण स्वरुप सृष्टि के कारण भक्तों के दुख को दूर करने वाले है, आपको मेरा नमस्कार है। नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान बोले: हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या बात है? आप किस काम के लिए पधारे हैं? उसे नि:संकोच कहो।

इस पर नारद मुनि बोले कि मृत्युलोक में अनेक योनियों में जन्मे मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अनेको दुख से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ!

आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए कि वो मनुष्य थोड़े प्रयास से ही अपने दुखों से कैसे छुटकारा पा सकते है।

श्रीहरि बोले: हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है।

जिसके करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह बात मैं कहता हूँ उसे सुनो। स्वर्ग लोक व मृत्युलोक दोनों में एक दुर्लभ उत्तम व्रत है जो पुण्य देने वाला है। आज प्रेमवश होकर मैं उसे तुमसे कहता हूँ।

श्री सत्यनारायण कथा भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक करके मनुष्य तुरन्त ही यहाँ सुख भोग कर, मरने पर मोक्ष पाता है।

श्रीहरि के वचन सुन कर नारदजी बोले कि उस व्रत का फल क्या है? और उसका विधान क्या है? यह व्रत किसने किया था?

इस व्रत को किस दिन करना चाहिए? सभी कुछ विस्तार से बताएँ। नारदजी की बात सुनकर श्रीहरि बोले: दुख व शोक को दूर करने वाला यह सभी स्थानों पर विजय दिलाने वाला है।

मानव को भक्ति व श्रद्धा के साथ शाम को श्रीसत्यनारायण की पूजा धर्मपरायण होकर ब्राह्मणों व बन्धुओं के साथ करनी चाहिए।

भक्ति भाव से ही नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लें। गेहूँ के स्थान पर साठी का आटा, शक्कर तथा गुड़ लेकर व सभी भक्षण योग्य पदार्थो को मिलाकर भगवान का भोग लगाएँ।

ब्राह्मणों सहित बन्धु-बान्धवों को भी भोजन कराएँ, उसके बाद स्वयं भोजन करें। भजन, कीर्तन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएँ।

इस तरह से सत्य नारायण भगवान का यह व्रत करने पर मनुष्य की सारी इच्छाएँ निश्चित रुप से पूरी होती हैं। इस कलि काल अर्थात कलियुग में मृत्युलोक में मोक्ष का यही एक सरल उपाय बताया गया है।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम: अध्याय सम्पूर्ण

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श्री सत्यनारायण कथा - द्वितीय: अध्याय

श्री_सत्यनारायण_कथा_द्वितीय_ अध्याय

सूतजी बोले: हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो! सुन्दर काशीपुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था।

भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा: हे विप्र!

नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते हो? दीन ब्राह्मण बोला: मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ। हे भगवान! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो बताइए।

वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है

मैं उसे जरुर करूँगा। यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई।

वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बन्धु-बान्धवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत सम्पन्न किया।

भगवान सत्यनारायण का व्रत सम्पन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।

इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा।

सूतजी बोले कि इस तरह से नारदजी से नारायणजी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो! मैं अब और क्या कहूँ?

ऋषि बोले: हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है।

सूतजी बोले: हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वह सब सुनो! एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बन्धु-बान्धवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ।

उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अन्दर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा उनको व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं

तथा इसे करने से क्या फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएँ। ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया।

लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्री सत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। 

मन में इस विचार को ले बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिलता है।

बूढ़ा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा लेकर और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया।

वहाँ उसने अपने बन्धु-बान्धवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अन्त काल में बैकुंठ धाम चला गया।

॥इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय: अध्याय सम्पूर्ण

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श्री सत्यनारायण कथा - तृतीय: अध्याय

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सूतजी बोले: हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था।

प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया।

उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था।

राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा: हे राजन! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ।

राजा बोला: हे साधु! अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला: हे राजन! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा।

मेरी भी सन्तान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे सन्तान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो कर वह अपने घर गया।

साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को सन्तान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी सन्तान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा। साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे।

एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर कन्या ने जन्म लिया।

दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा।

एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया है,

साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरन्त ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचन नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य एक वणिक पुत्र को ले आया।

सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बन्धु-बान्धवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।

इस पर श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया।

वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था।

उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था।

राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर प्रसन्नता से राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों को हम पकड़ लाएँ हैं, आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें।

राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान से श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई।

घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई।

वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई। माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री, अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है?

कलावती ने अपनी माता से कहा: हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी

लीलावती ने परिवार व बन्धुओं सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें।

श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन देकर कहा कि: हे राजन! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो।

अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन, राज्य व सन्तान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब बात कहकर वह अन्तर्धान हो गए।

प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ। दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला: हे महानुभावों! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है,

लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कहकर राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।

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श्री सत्यनारायण कथा - चतुर्थ: अध्याय

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सूतजी बोले: वैश्य ने मंगलाचार कर अपनी यात्रा आरम्भ की और अपने नगर की ओर चल दिए। उनके थोड़ी दूर जाने पर एक दण्डी वेशधारी श्रीसत्यनारायण ने उनसे पूछा: हे साधु, तेरी नाव में क्या है?

अभिमाणी वणिक हंसता हुआ बोला: हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल व पत्ते भरे हुए हैं।

वैश्य के कठोर वचन सुन कर भगवान बोले: तुम्हारा वचन सत्य हो! दण्डी ऎसे वचन कहकर वहाँ से दूर चले गए। कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए।

दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया के पश्चात नाव को ऊँची उठते देखकर अचम्भा माना और नाव में बेल-पत्ते आदि देख कर वह मूर्छित हो कर जमीन पर गिर पड़ा।

मूर्छा खुलने पर वह अत्यन्त शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक ना मनाएँ, यह दण्डी का शाप है, इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी।

दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार कर के बोला: मैंने आपसे जो जो असत्य वचन कहे थे उनके लिए मुझे क्षमा करें,

ऎसा कहकर वह महान शोकातुर होकर रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले: हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है। तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला: हे भगवान! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ।

ऎसा कहकर वह महान शोकातुर होकर रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले: हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है। तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला: हे भगवान! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ।

आप प्रसन्न होइए, अब मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।

साधु वैश्य के भक्तिपूर्ण वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए। ससुर-जमाई जब नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई थी फिर वहीं अपने अन्य साथियों के साथ श्रीसत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चल दिए।

जब नगर के नजदीक पहुँचे तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया। दूत साधु की पत्नी को प्रणाम कर कहता है कि मालिक अपने दामाद सहित नगर के निकट आ गए हैं।

दूत की बात सुनकर साधु की पत्नी लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ श्रीसत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपनी पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जा!

माता के ऎसे वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ कर अपने पति के पास चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण श्रीसत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को पानी में डुबो दिया।

कलावती अपने पति को वहाँ ना पाकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। नौका को डूबा हुआ देखकर व कन्या को रोता देखकर साधु दुखी होकर बोला कि, हे प्रभु! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करें।

साधु के दीन वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई: हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है, इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटती है तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा।

ऎसी आकाशवाणी सुन कलावती घर पहुँचकर प्रसाद खाती है और फिर आकर अपने पति के दर्शन करती है। उसके बाद साधु अपने बन्धु-बान्धवों सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का विधि-विधान से पूजन करता है। इस लोक का सुख भोगकर वह अन्त में स्वर्ग जाता है।

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण

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श्री सत्यनारायण कथा - पञ्चम: अध्याय

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सूतजी बोले: हे ऋषियों! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया।

एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उन्होने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बन्धुओं सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा।

अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उन्होने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया लेकिन उन्होने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ कर वह अपने नगर को चला गया।

जब वह नगर में पहुँचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है।

वह दुबारा ग्वालों के पास पहुँचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरान्त उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।

जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो श्रीसत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है,

और भयमुक्त होकर जीवन जीता है। सन्तानहीन मनुष्य को सन्तान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अन्तकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले: जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।

उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयम्भु होकर भगवान में भक्तियुक्त होकर सत्कर्म कर के मोक्ष पाया। Explore Our Instagram

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का पञ्चम: अध्याय सम्पूर्ण॥

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🙏 श्री सत्यनारायण कथा - आरती 🙏

श्री_सत्यनारायण_कथा_आरती

श्री सत्यनारायण जी आरती
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी जय लक्ष्मीरमणा |
सत्यनारायण स्वामी ,जन पातक हरणा || जय लक्ष्मीरमणा 🙏

रत्नजडित सिंहासन , अद्भुत छवि राजें |
नारद करत निरतंर घंटा ध्वनी बाजें ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.🙏

प्रकट भयें कलिकारण ,द्विज को दरस दियो |
बूढों ब्राम्हण बनके ,कंचन महल कियों ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

दुर्बल भील कठार, जिन पर कृपा करी |
च्रंदचूड एक राजा तिनकी विपत्ति हरी ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

वैश्य मनोरथ पायों ,श्रद्धा तज दिन्ही |
सो फल भोग्यों प्रभूजी , फेर स्तुति किन्ही ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

भाव भक्ति के कारन .छिन छिन रुप धरें |
श्रद्धा धारण किन्ही ,तिनके काज सरें ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

ग्वाल बाल संग राजा ,वन में भक्ति करि |
मनवांचित फल दिन्हो ,दीन दयालु हरि ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

चढत प्रसाद सवायों ,दली फल मेवा |
धूप दीप तुलसी से राजी सत्य देवा ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे |
ऋद्धि सिद्धी सुख संपत्ति सहज रुप पावे ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी..🙏

ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी जय लक्ष्मीरमणा|
सत्यनारायण स्वामी ,जन पातक हरणा ॥ 🙏

  जय लक्ष्मीरमणा 🙏

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