Navratri 2021- जानें नवरात्रि के आध्यात्मिक महत्व और नौ देवियों की कथा

नवरात्रि

इस बार नवरात्रि है बहुत खास!

इस बार #नवरात्रि खास इसलिये भी है क्योंकि अधिक मास आ जाने के कारण नवरात्रि के साथ #नवसंवत्सर भी एक माह देरी से प्रारम्भ हो रहे हैं। इस वर्ष #राक्षस नाम संवत्सर प्रारम्भ हो रहा है ।

क्योंकि चैत्र नवरात्रि से नव संवत्सर का प्रारम्भ होता है इसलिये भी राक्षस नाम संवत्सर के साथ नवरात्रि का प्रारम्भ और माता का वाहन भी बडी भूमिका निभायेंगे ।

माता का वाहन और फ़ल:-

#देवी #भागवत के अनुसार

शशिसूर्ये गजारूढ़ा शनिभौमे तुरंगमे।
गुरौ शुक्रे चदोलायां बुधे नौका प्रकीर्त्तिता।। 

तत्तफलम: गजे च जलदा देवी क्षत्र भंग स्तुरंगमे।
नोकायां सर्वसिद्धि स्या ढोलायां मरणंधुवम्।। 

  • अर्थात नवरात्रि यदि #सोमवार व #रविवार को प्रारम्भ होती हैं तो मां #दुर्गा #हाथी पर सवार होकर आती हैं।

  • #शनिवार और #मंगलवार को माता का वाहन घोड़ा होता है।

  • #गुरुवार और #शुक्रवार को माता #डोली में बैठकर आती हैं।

  • #बुधवार को माता #नाव पर सवार होकर आती हैं।

  • देवी जब #हाथी पर सवार होकर आती है तो #पानी ज्यादा बरसता है।

  • #घोड़े पर आती हैं तो पड़ोसी देशों से #युद्ध की आशंका बढ़ जाती है।

  • देवी नौका पर आती हैं तो सभी की मनोकामनाएं पूरी होती हैं

  • #डोली पर आती हैं तो #महामारी का भय बना रहता हैं।

इसी हिसाव से वाहन का फ़ल भी बताया गया है । इस बार नवरात्रि मंगलवार से प्रारम्भ हो रहे हैं अत: माता घोडे पर सवार होकर आयेंगी।

माता किस वाहन से विदा होंगी:-

#देवी #भागवत के अनुसार-
शशि सूर्य दिने यदि सा विजया महिषागमने रुज शोककरा।
शनि भौमदिने यदि सा विजया चरणायुध यानि करी विकला।।
बुधशुक्र दिने यदि सा विजया गजवाहन गा शुभ वृष्टिकरा।
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहन गा शुभ सौख्य करा॥

  • रविवार और सोमवार को देवी #भैंसा की सवारी से जाती हैं तो देश में #रोग और शोक बढ़ता है।

  • शनिवार और मंगलवार को देवी #मुर्गा पर सवार होकर जाती हैं, जिससे दुख और #कष्ट की वृद्धि होती है।

  • बुधवार और शुक्रवार को देवी हाथी पर जाती हैं। इससे #बारिश ज्यादा होती है।

  • गुरुवार को मां भगवती #मनुष्य की सवारी से जाती हैं। इससे जो सुख और #शांति की #वृद्धि होती है।

इस बार नवरात्रि बुधवार को समाप्त हो रहे हैं अत: माता हाथी पर सवार होकर जाएंगी

संवत्सर फ़ल:-

स्पष्ट है कि माता के के वाहन का फ़ल उत्तम स्थिति नहीं दर्शाता। साथ ही राक्षस नाम के संवत्सर है, और इस संवत्सर का राजा भी मंगल है।

  • इसके प्रभाव से मनुष्यों के अन्दर राक्षसी प्रवृत्ति बढ जाती है,

  • अशान्ति का माहौल रहता है,

  • बिमारियां बढती हैं, सज्जन पुरुषों को दु:ख झेलना पडता है,

  • जन धन की हानि होती है, वर्षा कम होने से अन्न की हानि होती है,

  • अकाल और संक्रामक रोगों का बार-बार भय बना रहता है।

  • आर्थिक परेशानियां बनी रहती है जिससे देश की #अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है ।

अत: कह सकते हैं कि इस बार की नवरात्रि अपने आप में खास फ़ल प्रदान करने वाली है जिससे समस्त प्राणी मात्र प्रभावित होगा।

घटस्थापना मुहूर्त:-

इस बार 13 अप्रैल 2021 से नवरात्रि प्रारम्भ होकर 21 अप्रैल 2021 को समाप्त होगें। 13 अप्रैल को #घटस्थापन किया जायेगा और घट स्थापन मुहुर्त इस प्रकार होगा। – 

घट स्थापना मंगलवार- 13 अप्रैल 2021 को
प्रात: 06:08 बजे से 10:16 बजे तक ।
कुल अवधि – 04 घण्टे 08 मिनट
घटस्थापना अभिजित मुहूर्त – 11:55 बजे से 12:45 बजे तक ।
अवधि – 00 घण्टे 50 मिनट

प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ – 12 अप्रैल 2021 को प्रात: 08:00 बजे से
प्रतिपदा तिथि समाप्त – 13 अप्रैल 2021 को प्रात: 10:16 बजे तक

नवरात्रि पूजन सामग्री:-

मां दुर्गा #गणेश की मूर्ति या फ़ोटो, श्रृंगार का सामान- चूडी, बिन्दी साडी आदि के अलावा मिट्टी या ताम्बे का #कलश, मिट्टी का सकोरा, जटायुक्त नारियल , नारियल गोला, रोली, मौली, जौ-तिल, धूप, दीप, नैवैद्य, फ़ल, फ़ूल, ताम्बूल, दूध दही घी शहद, पचमेवा, सुपारी, लौंग-इलायची, दोने, चावल, पीली सरसों, हल्दी, बूरा पंचरत्न, सप्तमृतिका, सर्वोषधि, आम के पत्ते, हरी दूब इत्यादि की समुचित व्यवस्था कर लें। जो लोग हरियाली उगाते है वे मिट्टी की व्यवस्था भी करके रखे।

पूजन विधि:-

  • प्रथम नवरात्रि को प्रात:काल उठकर स्नानादि नित्य कर्मो से निवृत्त होकर सर्व प्रथम कलश स्थापना की तैयारी करें।

  • घर के ईशान कोण में #मन्दिर की स्थापना करके एक चौकी पर आटा या हल्दी से अष्ट दल कमल बनाकर उसके ऊपर धान्य (जौ) रख कर जल या गगाजल से पूरित कलश स्थापित करे।

  • उसमे गन्ध; अक्षत; #पूंगीफ़ल; सप्तमृतिका; सर्वोषधि; पंचरत्न और दक्षिणा के रूप मे एक सिक्का डाल कर आम के पत्ते रखे और ऊपर से थाली या दोने मे चावल भरकर रखे;

  • तदुपरान्त एक जटायुक्त नारियल परलाल कपडा या कलावा बान्धकर कलश के ऊपर स्थापित करे और दोनो हाथ जोड्कर सभी देवी-देवताओं का कलश में आवाहन करे।

  • इसके पश्चात मां दूर्गा और #गणपति की प्रतिमा को एक पात्र मे रखकर दूध दही घी शहद #शक्कर से स्नान कराये

  • तत्पश्चात वस्त्राभूषण पहनाकर आसन पर विराजमान करें और फ़ूल पकडकर आह्वाहन करे ।

  • इसके अलावा अन्य देवी देवताओ की स्थापना करें, देवी के दायीं ओर #महालक्ष्मी; गणेश और विजया नामक योगिनी तथा बायीं ओर #कार्तिकेय; #महासरस्वती और जया नामक योगिनी तथा भगवान #शंकर का आह्वाहन और स्थापन करते हुये पुष्प प्रतिमाओ को समर्पित कर दे

  • चम्मच मे जल लेकर तीन बार प्रतिमाओ पर चढाये; तत्पश्चात गन्ध अक्षत लगाकर पुष्प माला पहनाये।

  • इसके पश्चात धूप दीप दिखाकर स्वादिष्ट पकवान या मिष्ठानो से सभी #देवो को भोग लगाये।

  • ऋतुफ़ल अर्पित करके मुख की शुध्दि के लिये लौग इलायची युक्त पान दे और पूजा मे किसी भी तरह की कमी की पूर्ति के लिये यथा शक्ति द्रव्य दक्षिणा चढाकर क्षमा याचना करे।

  • दिनभर देवी मां की आराधना करते हुये संध्या काल में “ओम जग जननी जय जय” या “ओम जय अम्बे गौरी” से देवी की भक्ति भाव से आरती करे।

  • जो लोग अष्ट्मी पूजन करते हैं अष्टमी पूजन करे जो लोग नवमी पूजते हैं वे नवमी पूजन करें और घर पर ९ वर्ष से नीचे उम्र की कन्याओं का पूजन करे उन्हे भोजन दक्षिणा दें और आशीर्वाद लें।

नवरात्रि महोत्सव मे निरन्तर इसी क्रमानुसार पूजा अर्चना की जानी चाहिये। क्यूंकि इन पवित्र दिनो मे मां भगवती की पूजा आराधना करने से सभी दु:ख दूर होते है और घर परिवार मे सुख शान्ति की प्राप्ति होती है।

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

प्रथम नवरात्रि की कहानी

प्रथम नवरात्रि की कहानी

मां दुर्गा को सर्वप्रथम #शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं।

इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही #सती के नाम से भी जानी जाती हैं। इनसे जुडी कहानी इस प्रकार है।

एक बार जब प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो उठीं। 

शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। 

सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे।

भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्रोध आ गया ।

वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया।

यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं।

शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है। 

दोनो हाथ जोड्कर सभी देवी-देवताओं का और अपने ईष्ट का आवाहन करें। शैलपुत्री की पूजा अर्चना से मूलाधर चक्र जाग्रत होता है जिससे समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं। और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने मे मदद मिलती है।

मां भगवती के इस स्वरूप की विधिवत यथा लब्धोपचार विधि से पूजन करके जो लोग दुर्गा सप्तशती का पाठ कर सकते हैं वे पाठ करें । या फ़िर दुर्गा चालीसा का भी पाठ किया जा सकता है।

सायं काल में मां भगवती को भोग लगायें और आरती करके प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात व्रत तोडें ।

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

दूसरे नवरात्रि की कथा

दूसरे नवरात्रि की कथा

मां दुर्गा की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप #ब्रह्मचारिणी का है। यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है। मां #दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है।

ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।

पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया।

कहा जाता है कि एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए।

कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की।

यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।

इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है।

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

तीसरे नवरात्रि की कथा

तीसरे नवरात्रि की कथा

इस दिन भी पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे अर्थात जो चीजे पहले दिन अर्पण की गई थी जैसे फ़ल फ़ूल इत्यादि ,उन्हे हटाकर नई चीजे अर्पण करनी चाहिये।

इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर माता के परिवार के देवता, गणेश , लक्ष्मी , विजया , कार्तिकेय , देवी सरस्वती ,एवं जया  नामक योगिनी की पूजा करें फिर देवी चन्द्रघंटा की पूजा अर्चना करें. श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है।

इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टोंसे मुक्ति मिलती है। इनकी आराधना से मनुष्य के हृदय से अहंकार का नाश होता है तथा वह असीम शांति की प्राप्ति कर प्रसन्न होता है। माँ चन्द्रघण्टा मंगलदायनी है तथा भक्तों को निरोग रखकर उन्हें वैभव तथा ऐश्वर्य प्रदान करती है। उनके घंटो मे अपूर्व शीतलता का वास है।

देवी #चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं. इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है

माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र में प्रविष्ट होता है यह क्षण साधक के लिए अत्यंतमहत्वपूर्ण होते हैं

चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है. चेहरा शांत एवं सौम्य है और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है. माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान करती हैं

मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं. माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं

जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है. मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है

इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है.जो साधक योग साधना कर रहे हैं

उनके लिए यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन कुण्डलनी जागृत करने हेतु स्वाधिष्ठान चक्र से एक चक्र आगे बढ़कर मणिपूरक चक्र का अभ्यास करते हैं. इस दिन साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र में प्रविष्टहोता है

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

चतुर्थ नवरात्रि की कथा

चतुर्थ नवरात्रि की कथा

चौथे नवरात्रि के दिन मां #कूष्मांडा की पूजा की जाती है अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है।

इस दिन भी पूर्व की भांति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे अर्थात जो चीजे पहले दिन अर्पण की गई थी जैसे फ़ल फ़ूल इत्यादि ,उन्हे हटाकर नई चीजे अर्पण करने के लिये लायें।

इनके पूजन से अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। मां कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।

इनकी आराधनासे मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। माँ कुष्माण्डा सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं।

वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं. देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राज्य था देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंड सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी 

यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं.देवी कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा लिये हुये हैं। देवी के आठवें हाथ में कमल फूल के  बीज की माला है।

यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है. देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं. जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है

जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को अनहत चक्र (Anhat chakra) में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है

दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें

फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं. इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करे

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

पंचम नवरात्रि की कथा

पांचवे नवरात्रि के दिन मां #स्कन्दमाता की पूजा की जाती है। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। 

आज के दिन पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे अर्थात जो चीजे पहले दिन अर्पण की गई थी जैसे फ़ल फ़ूल इत्यादि , उन्हे हटाकर नई चीजे अर्पण करने के लिये लायें। 

इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं

मृत्युलोक में ही साधक को परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वंयमेव सुलभ हो जाता है। इनकी आराधना से मनुष्य सुख-शांति की प्राप्ति करता है।  

सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।

भगवान स्कन्द कुमार (कार्तिकेय)की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवे स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है. भगवान स्कन्द जी बालरूप में माता की गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में अवस्थित होता है

स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है।

यह पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं

माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है. जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं

माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है|

माँ स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं| इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है | यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है|

एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है|

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

षष्ठम नवरात्रि की कथा

षष्ठम नवरात्रि की कथा

छठे नवरात्रि के दिन मां #कात्यायनी की पूजा की जाती है। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं।

आज के दिन पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे अर्थात जो चीजे पहले दिन अर्पण की गई थी उन्हे हटाकर नई चीजें चढायें। इनकी उपासना से आज्ञा चक्र जाग्रति की सिद्धियां साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है।

वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौलिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है तथा उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।

नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी सबका कल्याण करें। 

माँ दुर्गा के छठे रूप को माँ कात्यायनी के नाम से पूजा जाता है. महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं

महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया।

इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है

इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं

साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है. माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं

इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है

जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के छठे दिन माँ कात्यायनी जी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए

फिर मन को आज्ञा चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

देवी कात्यायनी जी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ॠषि हुए तथा उनके पुत्र ॠषि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से, विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए थे

देवी कात्यायनी जी देवताओं ,ऋषियों के संकटों को दूर करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में उत्पन्न होती हैं. महर्षि कात्यायन जी ने देवी पालन पोषण किया था

जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था 

महर्षि #कात्यायन जी की इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। ॠषि कात्यायन ने भगवती जी कि कठिन तपस्या, पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं. 

देवी ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की तथा अश्विन कृष्णचतुर्दशी को जन्म लेने के पश्चात शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनोंतक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, दशमी को देवी ने महिषासुर का वध किया ओर देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया. 

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

सप्तम नवरात्रि की कथा

सप्तम नवरात्रि की कथा

सातवें नवरात्रि के दिन मां #कालरात्रि की पूजा की जाती है। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। आज के दिन पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे और नई सामग्री वढायें।

इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री कालरात्रि की साधना से साधक को भानुचक्र जाग्रति की सिद्धियां स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं।

संसार में कालो का नाश करने वाली देवी ‘कालरात्री’ ही है। भक्तों द्वारा इनकी पूजा के उपरांत उसके सभी दु:ख, संताप भगवती हर लेती है। दुश्मनों का नाश करती है तथा मनोवांछित फल प्रदान कर उपासक को संतुष्ट करती हैं।

मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, इनका वर्ण अंधकार की भाँति काला है, केश बिखरे हुए हैं, कंठ में विद्युत की चमक वाली माला है, माँ कालरात्रि के तीन नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह विशाल व गोल हैं

जिनमें से बिजली की भाँति किरणें निकलती रहती हैं, इनकी नासिका से श्वास तथा निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं

माँ का यह भय उत्पन्न करने वाला स्वरूप केवल पापियों का नाश करने के लिए हैं। माँ कालरात्रि अपने भक्तों को सदैव शुभ फल प्रदान करने वाली हैं, इस कारण इन्हें #शुभंकरी भी कहा जाता है

दुर्गा पूजा के सप्तम दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में अवस्थित होता है। विष्णु को निंद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा जी ने मां की स्तुति की थी

यह देवी काल रात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योगनिद्रा हैं. इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा है। देवी काल-रात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है। जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है, 

मां कालरात्रि के तीन बड़े-बड़े उभरे हुए नेत्र हैं, जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं, देवी की चार भुजाएं हैं 

दायीं ओर की उपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं, और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं, बायीं भुजा में क्रमश: तलवार और खड्ग धारण किया है।

देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और हवाओं में लहरा रहे हैं. देवी काल रात्रि गर्दभ पर सवार हैं. मां का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता है. देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है अत: देवी को शुभंकरी भी कहा गया है

देवी का यह रूप ऋद्धि सिद्धि प्रदान करने वाला है. दुर्गा पूजा का सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं

इस दिन मां की आंखें खुलती हैं. षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किया जाता है उसे आज तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आँखें बनती हैं. दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है

इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं 

सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है, इस दिन अनेक प्रकार के मिष्टान एवं कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है

सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है. कुण्डलिनी जागरण हेतु जो साधक साधना में लगे होते हैं आज सहस्त्रसार चक्र का भेदन करते हैं  दुर्गा सप्तशती के प्रधानिक रहस्य में बताया गया है

जब देवी ने इस सृष्टि का निर्माण शुरू किया और ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का प्रकटीकरण हुआ उससे पहले देवी ने अपने स्वरूप से तीन महादेवीयों को उत्पन्न किया

सर्वेश्वरी महालक्ष्मी ने ब्रह्माण्ड को अंधकारमय और तामसी गुणों से भरा हुआ देखकर सबसे पहले तमसी रूप में जिस देवी को उत्पन्न किया वह देवी ही कालरात्रि हैं

देवी कालरात्रि ही अपने गुण और कर्मों द्वारा महामाया, महामारी, महाकाली, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, एवं दुरत्यया कहलाती हैं। 

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

अष्टम नवरात्रि की कथा

अष्टम नवरात्रि की कथा

#आठवें नवरात्रि के दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये #महागौरी कहलाती हैं। आज के दिन पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे और नई चीजें चढायें ।

श्री महागौरी की आराधना से सोम चक्र जाग्रति की सिद्धियों की प्राप्ति होती है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। देवी दुर्गा के नौ रूपों में महागौरी आठवीं शक्ति स्वरूपा हैं

दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है. महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी हैं।

माँ महागौरी की अराधना से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं, तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी बनता है।

देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ जिसने शुम्भ निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया. यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं

महागौरी की चार भुजाएं हैं उनकी दायीं भुजा अभय मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है. बायीं भुजा में डमरू और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देती हैं।

जो स्त्री इस देवी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं. कुंवारी लड़की मां की पूजा करती हैं तो उसे योग्य पति प्राप्त होता है।

जो पुरूष देवी गौरी की पूजा करते हैं उनका जीवन सुखमय रहता है देवी उनके पापों को जला देती हैं और शुद्ध अंत: करण देती हैं।

नवरात्रे के दसों दिन कुंवारी कन्या भोजन कराने का विधान है परंतु अष्टमी के दिन का विशेष महत्व है. इस दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। 

#पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौरवर्ण का वरदान देते हैं।

एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है. देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा।

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

नवम् नवरात्रि की कथा

नवम् नवरात्रि की कथा

#नौवें नवरात्रि के दिन मां #सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। मां सिध्दिदात्री सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं।

देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वे लोक में ‘अर्द्धनारीश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुए |

आज के दिन पूर्व की भान्ति नित्य क्रियाओ से निवृत्त होकर पूजा के मण्डप की सफ़ाई करे और नई चीजों से पूजन करें। श्री सिद्धिदात्री की साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता।

सिद्धिदात्री की कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर मोक्ष पाने मे सफल होता है। मार्कण्डेयपुराण में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्व ये आठ सिद्धियाँ बतलायी गयी है।

भगवती सिद्धिदात्री उपरोक्त संपूर्ण सिद्धियाँ अपने उपासको को प्रदान करती है। माँ दुर्गा के इस अंतिम स्वरूप की आराधना के साथ ही नवरात्र के अनुष्ठान का समापन हो जाता है।

मां दुर्गा जगत के कल्याण हेतु नौ रूपों में प्रकट हुई और इन रूपों में अंतिम रूप है देवी सिद्धिदात्री का देवी प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं

देवी सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है, देवी की चार भुजाएं हैं दायीं भुजा में माता ने चक्र और गदा धारण किया है, मां बांयी भुजा में शंख और कमल का फूल है।

मां सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान रहती हैं, मां की सवारी सिंह हैं. देवी ने सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है देवतागण, ऋषि-मुनि, असुर, नाग, मनुष्य सभी मां के भक्त हैं. देवी जी की भक्ति जो भी हृदय से करता है मां उसी पर अपना स्नेह लुटाती हैं. सिद्धियां हासिल करने के उद्देश्य से जो साधक भगवती सिद्धिदात्री की पूजा कर रहे हैं। 

उन्हें नवमी के दिन निर्वाण चक्र (Nirvana Chakra)का भेदन करना चाहिए. दुर्गा पूजा में इस तिथि को विशेष हवन किया जाता है. हवन से पूर्व सभी देवी दवाताओं एवं माता की पूजा कर लेनी चाहिए. हवन करते वक्त सभी देवी दवताओं के नाम से अहुति दी जाती है। बाद में माता के नाम से अहुति दी जाती । 

जिन लोगो ने मन्त्र का जाप या दुर्गा सप्तसती का पाठ किया हो वे दशांस हवन तर्पण मार्जन करते हैं।

अपनी अलौकिक शक्ति को इस नवरात्रि करें जागृत । विधि जानें पण्डित जी से 

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